Wednesday, July 23, 2008

संसद या हस्तिनापुर का दरबार??


22 जुलाई को विश्व के सबसे बड़े लोकतंत्र की संसद में जो भी हुआ उसके बारे में कुछ भी लिखते समय अन्दर से शर्म ही महसूस होती है। जब संसद में नोट उछाले जा रहे थे तब हम अपने काम के सिलसिले में चंडीगढ़ से दिल्ली का सफर बस से कर रहे थे। हमारे छोटे भाई लगातार फ़ोन से संसद का आंखों देखा हाल बयां कर रहे थे। जैसे ही उन्होंने बताया नोटों की गड्डियों का किस्सा, हमारे मुंह से ओह ओह निकल गया, अगल बगल के यात्री भी देखने लग गये, पर शरम के मारे उनसे कुछ बता भी नही पाया। उसके बाद जो भी कुछ होता गया, हम सुनते रहे।

आज चिट्ठाजगत पर पुराने लेख देखते समय श्रीकान्त मिश्र 'कान्त' जी की कविता -"घिन आने लगी है 'घोड़ामण्डी' से" देखी, जिन्होंने ना पढ पाई हो वो यहां से पढ़ सकते हैं। बहुत अच्छा चित्रण किया है कल और आज के नेताओं का। कुछ पंक्तियां तोबहुत ही प्रभावी हैं -

चिलचिलाती धूप में
पसीने से लथपथ ..
आते थे जब भी ..
भटकते हुए मांग कर
किसी से 'लिफ्ट'
अथवा पैदल ...

तुम्हारा भूखा प्यासा
पदयात्रा से थका चेहरा
कर देता था व्याकुल
हर गावं में मां को ..
दौड़ पड़ती थी बहना
ले पानी का गिलास
भाभी टांक देती थी बहुधा
तुम्हारेफटे हुए कुरतेके बटन
बाबा सोचते थे हरबार
देने को एक नया कुरता
मुझसे पहले ….. तुम्हें

किंतु ......
जबसे देखता हूँ तुम्हें
पहने हुए तरह तरह के मुखौटे
बदलते हुए टोपियाँ …. हरपल
निकलते हुए कार से
गावं के उस मिटटी के चबूतरे का
उडाते हुए उपहास .....

साथ ही याद गई बचपन में एक कवि सम्मेलन में सुनी ये चार पक्तियां -

जिनके हाथों में सरकार है,
उनका संदिग्ध किरदार है,
आप कहते हैं संसद जिसे,
हस्तिनापुर का दरबार है।
सत्य को झूठ लिखता रहा...
राजधानी का अखबार है॥

कवि के नाम पर बहुत पक्का नही हूं, कोशिश करूंगा कि पूरी कविता हाथ लग पाये, शायद अंसार कम्बरी जी ने सुनाई थी। अगर गलत हो तो सही करवा दिजियेगा।

Sunday, July 6, 2008

आरुषि केस का सच...

पिछले करीब डेढ़ महीने से कमोबेश सभी टीवी चैनलों की शोभा बने रहने के बाद और अभी भी चार लोगों के बीच बहस का एक मुद्दा बने रहने के बाद भी जब ये केस सुलझने का नाम ही नही ले रहा था तो हमने भी सोचा की चलो हम ही अपनी अकल लगाते हैं और इस केस के तह तक पहुँचने की कोशिश करते हैं.. खैर, एक बारगी पूरे केस का सिंहावलोकन करने के बाद इस दोहरे हत्याकांड के सूत्रधार महोदय (अथवा महोदया) को तो हम भी चिन्हित नही कर पाए, पर एक बात तो मैं भी कहूँगा की इस केस से एक बहुत बड़ा सच जरूर आ गया पूरे देश और दुनिया के सामने, और वो ये की हमारे देश की सर्वोच्च जाँच पड़ताल संस्था (सीबीआई) के बस का शायद अब कुछ भी नही है..
पहले जब भी किसी नेता के ऊपर सीबीआई जांच बैठाई जाती थी तो कुछ उम्मीद रहती थी की शायद ये केस सुलझेगा, पर धीरे धीरे देश ने ये स्वीकार कर लिया कि नेताओं को सजा दिलवा पाना सीबीआई क्या किसी के लिए भी असंभव है. पर अब जब नेताओं क्या आम जनता के केस भी नही सुलझ पा रहे हैं तो ऐसी संस्थाओं की आवश्यकता एवं कार्यप्रणाली पर प्रश्न उठना स्वाभाविक हो जाता है.
अब आते हैं आरुषि केस पर. एक घर के अन्दर एक रात २ लोगों का कत्ल हो जाता है. उस घर से जुड़े जितने भी लोग हैं उन सभी पे शक किया जाता है. और सबसे पहली गिरफ्तारी होती है आरुषि के पिता यानि की डा. तलवार की. उनकी गिरफ्तारी तक का काम किया गया विश्व प्रसिद्द यू पी पुलिस के द्वारा जिन्होंने केस को पूरी तरह सुलझाने का मीडिया के सामने बहुत अच्छे से दावा किया, साथ ही बिना किसी संकोच के आरुषि और हेमराज के संबंधों पर भी दावे कर दिए. खैर, अपेक्षित राजनीति के बाद ये केस सोंप दिया गया सीबीआई को. और उस दिन से आज तक सीबीआई की बदौलत आम आदमी नारको टेस्ट, लाई डिटेक्शन टेस्ट और भी न जाने क्या क्या टेस्टों के बारे में जान गया है. पर केस का पूर्ण सत्य आना अभी भी अपेक्षित है. प्रतिदिन टीवी देखते या अखबार पढ़ते समय ये नही पता होता की अब आज किसके ऊपर कातिल होने का सहरा बंधने वाला है.
खैर, कातिल कोई भी हो पर ये कितना दुर्भाग्यपूर्ण है की ये बात सभी को पता है की ये दोनों कत्ल किसी सोची समझी रणनीति की तहत नही किए गए. जितने भी लोग शक के घेरे में हैं उनमें से किसी ने भी शायद कागज कलम लेके कत्ल करने की रणनीति नही बनाई होगी. जो कुछ भी हुआ उसके पीछे केवल त्वरित उन्माद था. पर डेढ़ महीने की कवायद के बाद भी केस ना सुलझ पाना केवल और केवल ये बताता है की आजकल कितना आसान हो गया है किसी केस से बचना. डा. तलवार अभी भी जेल में हैं. यद्यपि सीबीआई ने उनको क्लीन चिट नही दी हेई पर अगर सच आने के बाद वो निर्दोष साबित होते हैं तो ये सोचने की बात है की जिन केसों की सीबीआई जांच नही होती उनमें कितने ही डा. तलवार भारत की जेलों में बंद होंगे. जिन केसों पर मीडिया इतना मेहरबान नही होता, सीबीआई जांच नही बैठाई जाती, उन केसों में कितने ही निर्दोष लोग ऐसे ही जेल की हवा खा जाते होंगे. और डा. तलवार, कृष्णा, राजकुमार या जो भी हो, देश की सर्वोच्च जांच संस्था को आसानी से गच्चा दे सकते हैं...

हम तो बस उम्मीद ही कर सकते हैं की जो सच में कातिल हो उसे ही सजा मिले और जरूर मिले. पर ऐसी नाकामी पर पुलिस और सीबीआई दोनों को चिंतन जरूर करना चाहिए...